कभी कभी महसूस होता है कि बाहर सब ठीक है, पर अंदर कुछ धीरे बदल रहा है। वह एहसास हमेशा साफ नहीं होता, लेकिन वह वहाँ होता है।

जब बाहर सब सामान्य लगे, फिर भी भीतर कुछ गुम सा हो

कई बार हम अपने रोजमर्रा के काम करते रहते हैं — उठना, ऑफिस या कॉल, सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया देना, अन्य लोगों से मिलना-ठिठुरना। सब कुछ नॉर्मल लगता है। लेकिन अंदर कहीं हम थोड़े भटक गए हैं। ऐसा लगता है जैसे जीवन की रंगत फीकी पड़ गई हो, जैसे आपका हिस्सा खामोश हो गया हो।

कई लोग इस अहसास को नोटिस करते हैं, लेकिन शब्द नहीं मिलते कि उसे कैसे कहें। यह उदासी नहीं होती; यह अंदर की एक धीरे-धीरे खिंची रेखा होती है। उर्जा धीरे घटती जाती है। वो बातें, जो पहले खुशी देती थीं — अब उनका रंग फीका पड़ गया है। मुस्कान परतों में बदल जाती है। संवाद फीके पड़ जाते हैं। जब आप सबसे जुड़ने की कोशिश करते हैं, तब भी अंदर से कुछ अलग महसूस होता है।

शायद अब आप वार्तालापों से धीरे हट रहे हैं। बात तो करना चाहते हैं, लेकिन अंदर से उत्तर देने की शक्ति नहीं मिलती। शायद आप एक ही टीवी सीरीज़ बार-बार देखते हैं — न इसलिए कि पसंद हो, बल्कि क्योंकि न कुछ सोचने का मन हो न करने का। नींद ठीक से पूरी नहीं होती, पर फिर भी सुबह उतरी थका हुआ महसूस होता है। या फिर तेज़ सोचें अचानक रातों में दिमाग में उठ जाती हैं, जब आप सोने की कोशिश करते हैं।

यह एहसास कि कुछ ठीक नहीं है — अक्सर तभी आता है जब आप बहुत देर तक खुद को दबाते रहे हों। जब बार-बार कहा गया हो: “मैं संभाल लूंगा,” लेकिन अंदर की निराशा दब गई हो। जब “सब ठीक है” कहना रोजमर्रा का हिस्सा बन गया हो।

यह महसूस करना कि आप ठीक नहीं महसूस कर रहे, इसका मतलब यह नहीं कि आप कमजोर हैं। इसका मतलब यह है कि आपके अंदर कुछ शांत हो गया है, और कहीं से आपको बुलावा मिल रहा है कि वापस आओ।

आप शायद वह व्यक्ति नहीं रहे जो पहले थे — हल्कापन, मुस्कान, उत्साह थोड़ा दूर लगता है। और यह मानना भी ठीक है कि वह कहीं छूट गया है। लेकिन वह वहाँ है — वह आपका पुराना हिस्सा — जो अभी सिर्फ रोक से बाहर आना चाहता है।

किसी को बताने की जल्दी नहीं है, किसी को दिखाने की भी ज़रूरत नहीं। यह जगह सिर्फ है — देखने की, महसूस करने की, बिना किसी दोषारोपण के। यह कोई इलाज नहीं है। यह सिर्फ आपको सुनने की अनुमति है — खुद से।

कुछ दिन बेहतर होते हैं, कुछ दिन थकान चरम पर होती है। दोनों ठीक हैं। यह कोई दर्पण नहीं कि आपका रवैया बदल गया है। यह सिर्फ इतना है कि आपके भीतर कुछ शांत था और अब उसमें हलचल हो रही है।

यह सोचने की जगह है: “क्या मैं कुछ बदल गया महसूस कर रहा हूँ?” — बिना उस सवाल का तुरंत उत्तर पाने की ज़रूरत के। यह सवाल ही शुरुआत है। और वह शुरुआत आपका समर्थन करती है। इससे यह फर्क नहीं पड़ता कि बाहर क्या है — आपका अंदर का अनुभव भी वैध है।

ऐसी क्षणीन्ताओं में, शांत रहना ही बहादुरी है। आपकी असली ताकत महसूस करने में नहीं, बल्कि खुद को सुनने में निहित है। यह सफर तुरंत समापन की माँग नहीं करता। यह किसी निर्णय की प्रतीक्षा नहीं करता। यह सिर्फ आपकी पैनी, परन्तु शांत, आंतरिक आवाज को सू करने का प्रयास है।

आपको आज किसी परिणाम की ज़रूरत नहीं है। आपको किसी को संतुष्ट करने की ज़रूरत नहीं है। सिर्फ इतना मान लीजीए कि “मैं शायद पहले जितने ऊर्जा से काम नहीं कर पा रहा।” और यह स्वीकार आपकी देखभाल की शुरुआत हो सकती है।

हो सकता है कि हाल ही में आप थोड़ा अलग महसूस कर रहे हों — जैसे कि आपके चारों ओर सब कुछ चलता जा रहा है, लेकिन आप खुद एक जगह ठहरे हुए हैं। जैसे समय आगे बढ़ रहा है, लेकिन आप उसके साथ नहीं चल पा रहे। यह कोई असफलता नहीं है। यह जीवन की एक बहुत सामान्य स्थिति है, जो कभी भी, किसी के भी साथ हो सकती है।

कई बार लोग यह सोचते हैं कि अगर उनके जीवन में सब कुछ "ठीक" है — नौकरी है, परिवार है, दोस्त हैं — तो उन्हें दुखी महसूस करने का कोई कारण नहीं होना चाहिए। लेकिन भावनाएँ तर्क से नहीं चलतीं। वे गहराई में चल रही उस लहर की तरह होती हैं, जो सतह पर दिखाई नहीं देती, लेकिन अंदर लगातार हिलोरें मार रही होती है।

जब कुछ गलत नहीं लगता, फिर भी कुछ खाली लगता है — वह खालीपन ही संकेत हो सकता है। संकेत कि शायद आपको थोड़ी सी धीमी गति की जरूरत है, थोड़ी सी खुद के साथ बातचीत की, थोड़ी सी जगह उस भाव को समझने के लिए जो शब्दों में नहीं आ पा रहा।

आप अकेले नहीं हैं। बहुत से लोग इसी तरह की स्थिति का सामना करते हैं — बिना इसे नाम दिए, बिना इसे दुनिया के सामने लाए। और इसका मतलब यह नहीं कि आपकी भावना कम महत्वपूर्ण है। बल्कि इसका मतलब है कि आप खुद से जुड़ने की कोशिश कर रहे हैं। और यही जुड़ाव सबसे पहली और सबसे जरूरी चीज है।

कभी-कभी किसी से बात करना भी कठिन लग सकता है। क्योंकि आप खुद नहीं जानते कि कहना क्या है। यह भ्रम, यह अस्पष्टता — यह सब भी पूरी तरह वैध है। आप किसी को समझाने के लिए ज़िंदा नहीं हैं। आपको खुद को समझने का पूरा हक है।

अगर आप खुद से यही सवाल पूछ रहे हैं: "क्या मैं ठीक हूँ?" — तो समझिए कि आपने अपनी ओर पहला कदम बढ़ा लिया है। हर जवाब जरूरी नहीं होता। कभी-कभी सवाल ही शुरुआत होता है।

वह शुरुआत जिसमें आप खुद को थोड़ा और करीब से देखना शुरू करते हैं। बिना डर के, बिना संकोच के, बिना अपेक्षा के। और उस नज़र में — जहाँ आप अपने आप को देख रहे होते हैं — वही आपकी सबसे गहरी शक्ति होती है।

कुछ एहसास इतने गहरे होते हैं कि उन्हें कह पाना आसान नहीं होता। लेकिन जो महसूस होता है, वह हमेशा सच्चा होता है — भले ही शब्दों में न उतर सके। और जब आप उसे भीतर से स्वीकार करते हैं, तब एक छोटी‑सी जगह खुलती है। वहां से healing शुरू हो सकती है। वह कोई बड़ा कदम नहीं होता, बस एक छोटा‑सा रुक जाना होता है, अपने भीतर की आवाज़ को सुनने के लिए।

आपको किसी तयशुदा रास्ते पर चलने की ज़रूरत नहीं। आपको केवल यह जानने की ज़रूरत है कि आपका अनुभव मायने रखता है। जो कुछ आप महसूस कर रहे हैं — थकान, उलझन, खालीपन या सुन्नपन — वे सब उस मानवीय अनुभव का हिस्सा हैं, जिसे हम सब किसी न किसी रूप में जीते हैं।

यह कोई परीक्षा नहीं है जिसे पास करना है। यह कोई दौड़ नहीं है जिसे जीतना है। यह एक धीमी, ईमानदार कोशिश है — खुद को दोबारा महसूस करने की।

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